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Conference on 150 years of MIRZA GHALIB

Urdu Speaking Union

Conference on

150 years of MIRZA GHALIB

22 November 2019

 

Remarks by High Commissioner Tanmaya Lal

 

Hon. Minister of Arts & Cultural Heritage Avinash Teeluck Sahab,

Hon. Former Vice President raouf Bundhun Saheb,

Urdu Speaking Union के Chairman Janab Shehzaad Ahmad Sahab,

MGI के Department of Urdu Studies के head Dr. Alimamod,

भारत से तशरीफ़ लाए Prof. Ali Ahmad Fatmi,

JNUके Prof. Dr. Syed Mohammad Anwar Alam,

Dr. Khwaja Mohammad Ekrammuddin,

Urdu Speaking Union के Vice President Dr. Swabir Goodur Saheb, जिन्होंने इतना सुन्दर समां बांध दिया,

और आप सब ख़वातीन-ओ-हज़रात जो यहाँ आज मिर्ज़ा ग़ालिब साहब के 150 वीं death anniversary के मौके पर इस conference में शरीक़ हो रहे हैं, आप सभी को मेरा आदाब ।

और अब आपकी इजाज़त से मैं अपनी तक़रीर का आग़ाज़ करता हूँ ।

मुझे बहुत ख़ुशी है कि Urdu Speaking Union ने ये दो दिन की Conference organize की है जिसमें ग़ालिब साहब की शायरी, उनकी शख़्सियत और उनके फ़लसफ़े के बारे में discussion होगा ।

मैं Indian Council for Cultural relations (ICCR) का भी शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने भारत से 3 eminent आलिम को इस इजलास के लिए Mauritius भेजा है जिसमें Dr. Syed Mohammad Anwar Alam के साथ Dr. Khwaja Mohammad Ekrammuddin और Prof. Ali Ahmad Fatmi भी शामिल हैं ।

सबसे पहले तो मैं ये अर्ज़ करना चाहूँगा कि यहाँ उर्दू और शायरी की पहचान वाले कई Scholars जो यहाँ मौजूद हैं, मैं उनसे ग़ालिब साहब की शायरी के अलग पहलुओं के बारे में सुनना और समझना चाहता हूँ ।

मैं यह साफ़ करना चाहता हूँ कि न तो मैंने ग़ालिब साहब की शायरी को ज़्यादा पढ़ा है और न ही उनके दीवानों से मेरी ज़्यादा वाकिफ़यत है । मुझे ग़ालिब साहब के बारे में और उनकी शायरी के बारे में बहुत ही कम मालूम है ।

मगर ग़ालिब साहब की शायरी ऐसी थी कि हिंदुस्तान और पूरे subcontinent में आज भी शायद ही कोई ऐसा शख़्स होगा जो उनके नाम से वाक़िफ़ नहीं होगा ।

मेरी पैदाईश India में मुरादाबाद में हुई और मैं दिल्ली में बड़ा हुआ । मैंने अपने father और grandfather का शायरी में रुझान करीब से देखा और महसूस किया । यहाँ आने से पहले मैंने अपने father और कुछ साथियों से ग़ालिब साहब के बारे में बातचीत की । मेरी समझ में ग़ालिब साहब की शायरी में जो inheriting पहलु हैं मैं उनका यहाँ ज़िक्र करना चाहता हूँ ।

 

हम सब को मालूम है कि ग़ालिब साहब एक बेहतरीन, मशहूर और उम्दा शायर ही नहीं बल्कि एक अच्छे और sensitive इन्सान भी थे ।

उनके जीवनकाल में भारत में बड़ी तेज़ी से बदलाव आ रहा था । मुग़ल सल्तनत अपनी decline पर थी और पहले East India Company और फिर British Crown भारत में अपनी पकड़ मज़बूत कर रही थी । ये वक्त काफ़ी लड़ाई, जद्दो जहद और परेशानी का था । ग़ालिब साहब की ज़ाती जिंदगी भी बड़ी मुश्किलों से कटी । उनके सामने उनके 7 बच्चों की मौत हुई और इससे उनके अन्दर एक बहुत गहरी तक़लीफ़ और दुःख था ।

लेकिन इस बेहद मुश्किल personal life और चारों तरफ़ उथल-पुथल के माहौल के बावजूद उनकी शायरी एक बहुत ऊँची और sublime सोच और असाधारण ख़ूबबसूरती से भरपूर है ।

ग़ालिब कई भाषाएँ जानते थे जिनमें उर्दू, हिंदी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की शामिल थीं । उनकी ज़्यादा शायरी फ़ारसी में हैं मगर वो अपनी उर्दू शायरी और ख़तों से ज़्यादा जाने जाते हैं । वैसे उस ज़माने में उर्दू और हिंदी में ज़्यादा फ़र्क नहीं था । इनमें जो फ़र्क हम आज देखते हैं वो बाद में ज़ाहिर हुआ और भारत में हुई सामाजिक और धार्मिक उथल-पुथल को दर्शाता है ।

ग़ालिब साहब की शायरी का फैलाव बहुत बड़ा था ।

जहाँ कुछ लोगों के लिए उनकी शायरी को समझ पाना बहुत मुश्किल था वहीं उनकी कई ग़ज़लें बहुत सादी और आम बातचीत के भाषा में लिखी गईं । इसका एक उदाहरण है –

Ibne Mariam hua kare koi, Mere dukh ki dava kare koi

Na suno gar bura kahe koi, Na kaho gar bura kare koi

Koi Ummid bar nahin aati, Koi surat nazar nahi aati.

 

यह एक बहुत simple और मशहूर ग़ज़ल है ।

 

ग़ालिब साहब के समय में western culture भारत में फैल रहा था और इससे समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की एक तक़रार का माहौल था । ग़ालिब साहब इस हालात पर लिखते हैं –

Imaan mujhe roke hai, jo khiinche hai mujhe kufr

Kaaba mere pichhe hai, kalisa mere aage

 

जैसा मैंने पहले कहा कुछ लोग उनकी शायरी को यह कहके criticize करते थे कि वो समझने में बहुत मुश्किल हैं -

Kalaame Miir Samajhe hum, Zubaane Mirza Samjhe,

Magar inki kahi, ye Aap samjhe ya Khuda samjhe.

We understand the poetry of Miir and the language of Mirza Sauda; but what he writes is comprehensible only to him or God.

इसके जवाब में ग़ालिब साहब ने फ़रमाया -

Na Sataaish ki tamanna, na sile ki parvah,

Na sahi gar mere ashaar men maanii na sahi

āgahi dāme shaneedan jis adar chāhe bichhāye

madā anā hai apne ālame tareer kā

I don’t crave for appreciation or rewards; if my sher are devoid of meaning so be it. However wide intelligence casts its net of reason; the meaning of my poetic world will ever be elusive.

उनकी गहरी सोच के बारे में यहाँ मैं उनके एक और शेर का ज़िक्र करना चाहूँगा -

asal e shuhūd o shāhid o mashāhūd ek hai,
hairāñ hūñ, phir mushāhidā hai, kis hisāb se

The essence of what is seen, (the one) who sees, and all that is seen is one and the same; At a loss I am, (not knowing) how to account for the act of seeing.

ग़ालिब साहब पूछते हैं-

hai ġhaib-e-ġhaib jis ko samajhte haiñ ham shuhūd

haiñ khwāb meiñ hunoz jo jāge haiñ khwāb meiñ

What we take as manifest (just) points to the (inscrutable) mystery of the beyond; those who wake up in a dream are still in a dream.

यही unity of existence की theme कई Oriental Philosophies या फ़लसफ़ों में मिलती हैं । और आज Quantum Physics भी reality के इस वहदातुल वजूद की तरफ़ इशारा करता है ।

 

मैं उम्मीद करता हूँ कि ये इजलास मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के अलग-अलग पहलुओं पर रोशनी डालेगा । और मॉरिशस में लोग मिर्ज़ा ग़ालिब को और नज़दीक से पहचान पाएँगे ।

 

बहुत शुक्रिया ।

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