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Mauritius Sanatan Dharma Temples Federation

Mauritius Sanatan Dharma Temples Federation
Sanatan Purohit Samman Samaroh
11 October 2020

Remarks by
High Commissioner Tanmaya Lal

मॉरिशस सनातन धर्म Temples Federation के प्रधान श्री घूरबिन जी

Head Priest आचार्य सकलानी जी

विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव Prof. मिश्र जी

यहाँ उपस्थित सभी आदरणीय विद्वान्, पुरोहित गण, गणमान्य अतिथि

भाइयों और बहनों

आप सभी को मेरा सादर प्रणाम

सबसे पहले मैं आपके प्रति अपना आभार प्रकट करना चाहता हूँ कि आपने आज मुझे इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर दिया.

यह पुरोहित सम्मान समारोह निस्संदेह एक महत्वपूर्ण अवसर है.

पुरोहित का अर्थ आज अधिकतर कर्म कांड संपन्न कराने वाला है. पर प्राचीन काल में इसका अर्थ पंडित, गुरु और ब्रह्मज्ञ तक जाता था. राजा दशरथ के प्रधान पुरोहित वशिष्ठ जी थे, और उनमें ये सब गुण समाहित थे. उनकी असाधारण सिद्धियों के कारण राज के कार्यों में उनकी सहमति और अनुमति ली जाती थी. राज्य सभा में वे प्रमुख उपस्थिति थे.

यहाँ उपस्थित सभी विद्वान् और पुरोहित गण धर्म के विषय में मुझसे कहीं अधिक जानते हैं.

आप सभी के विचार, व्यवहार, आचरण और प्रवचन धर्म के अनुयायियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं.

धर्म और संस्कृति का मूल ज्ञान अगली पीढ़ी को समझाने और उन तक पहुंचाने में आप का बड़ा योगदान है और आगे भी रहेगा. यह एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य और उत्तरदायित्व है.

यहाँ मॉरिशस में आप के और आप जैसे अन्य संस्थानों ने अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर और मूल्यों को जीवित रखने में अमूल्य योगदान दिया है.

मैं आज अपने इस वक्तव्य में यह चर्चा करना चाहूँगा कि आधुनिक युग में युवा पीढ़ी को कैसे अपनी प्राचीन और सनातन संस्कृति की समृद्धि की ओर आकर्षित किया जा सकता है.

मॉरिशस और भारत दोनों ही अपने समाज की अनेक विविधताओं – एथनिसिटी, भाषा, धर्म, संस्कृति - के बारे में जाने जाते हैं I दोनों ही rainbow nations के रूप में यूनिटी इन डाइवर्सिटी को celebrate करते हैं. और यह इनकी शक्ति का स्रोत भी है.

हिन्दू धर्म के बारे में मेरी सीमित समझ मुझे बताती है,कि इस धर्म का दर्शन और ज्ञान सनातन है I इसी लिए यह हज़ारों सालों से लोगों का मार्ग दर्शन करता आया है.

यहाँ मैं धर्म के विषय में दो बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा.

पहली तो यह कि धर्म मनुष्य की एक मूलभूत आवश्यकता है – यह उसकी अन्य भौतिक आवश्यकताओं से अलग और स्वतंत्र है.

ऐसा मान सकते हैं कि धर्म का जन्म मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही हुआ है I

शायद भाषा की उत्पत्ति से भी पहले; तब जीवन निर्वाह के लिए मनुष्य की जो ज़रूरतें होती थी – जैसे पर्याप्त भोजन और अन्य जानवरों तथा प्राकृतिक आपदाओं आदि से सुरक्षा – इनके लिए किसी अप्रकट सत्ता से प्रार्थना की आवश्यकता उसे पड़ती होगी.

धीरे धीरे वन, वृक्ष, नदियाँ, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रों और प्रकृति के निरंतर बदलते अनेक स्वरूपों की भी इस सत्ता के विभिन्न पहलुओं के रूप में परिकल्पना की गई.

इसी लिए धर्म को हिंदुओं में सनातन कहा गया है – अनादि और चिरस्थायी.

दूसरी ओर इतिहास में धर्म के दो परस्पर विरोधी पहलू हमेशा से रहे हैं

एक पहलू तो यह है कि लोक कल्याण के जैसे और जितने काम धर्म के नाम पर हुए हैं वे अद्वितीय हैं. मैं जानता हूँ कि यहाँ मॉरिशस में आपकी संस्था का भी इसमें निरंतर बहुत सराहनीय योगदान रहा है.

परन्तु साथ ही यह भी सही है कि अक्सर विश्व के अनेक भागों में और अनेक कालों में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों ने अपने और पराये की भावना को बढ़ावा दिया है I और मानव इतिहास में भीषण संघर्ष के मूल में भी धर्म रहा है. इसके विषय में सोचा जाना चाहिए.

यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि यदि हम भारतीय सभ्यता की ओर देखें, तो उसने धर्म के सनातन स्वरूप को पहचाना और धर्म को सारी मानवता के संदर्भ में देखा

अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्, उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्

(यह मेरा है यह पराया है ऐसी गणना छोटे दिल और बुद्धि वालों की बात है,

उदार हृदय वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही परिवार है)

हिंदू धर्म के दर्शन में बुद्धि और उद्देश्य की बहुत ही ऊंची छलांग पाई जाती है. इसमें स्वयं और ब्रह्माण्ड की वास्तविकता को जानने के विषय में गहन जिज्ञासा और मनन पाया जाता है.

आत्मा और परमात्मा (निराकार, निर्गुण) जैसी सत्ता, जो सबके अंदर मौजूद है और सब जिसमें अवस्थित हैं,अपने आप में सारे भेदों और विभाजनों को समेट लेने में समर्थ है. इसलिए सारे धार्मिक संघर्ष यहाँ आकर समाप्त हो जाने चाहिए –

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्

(इस जड़ चेतन जगत् में जो कुछ है उसके अंदर ईश्वर/परमात्मा का वास है और

ईश्वर सब को सब ओर से आच्छादित किए हुए है)

हिंदू धर्म का दूसरा पक्ष कर्मकांड है – जिस पर स्वाभाविक ही देश-काल का प्रभाव अधिक दिखाई देता है. उल्लेखनीय है कि जहाँ हिंदू दर्शन सार्वभौमिक – सर्वजन हिताय है, हिंदू कर्म कांड में व्यक्ति के कुशल-क्षेम का प्राधान्य है, जैसा कि होना चाहिए.

जहां एक ओर हिन्दू-दर्शन सार्वभौमिक है, वहीं दूसरी ओर खेदजनक बात यह है कि अन्य सभी धर्मों की तरह हिन्दू समाज में भी अनेक विभाजन हैं I

आज दुनिया भर में यह देखा जा रहा है कि युवा पीढ़ी धर्म और संस्कृति के प्रति उदासीन सी हो रही है I उसका ध्यान अन्य कई ऐन्द्रिक आकर्षणों की ओर आसानी से खिंचता जाता है और जीवन में धर्म की ढीली होती हुई पकड़ के कारण जीवन में संतुलन बिगड़ गया है.

यह कौन सा संतुलन हैं ? हमारे यहाँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार आयाम हैं. इनमें संतुलन बैठा पाना और उसके अनुसार जीवन-निर्वहन करना जीवन का उद्देश्य है.

जहां एक ओर युवा पीढ़ी धर्म और संस्कृति के प्रति उदासीन हो रही है, वहीं इस नए दौर में सोशल मीडिया एक बहुत प्रभावी माध्यम है जिसके द्वारा युवा पीढ़ी तक पहुँचना बहुत आसान भी हो गया है.

यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि आज विज्ञान का युग है और किसी भी विचार के प्रति युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए यह आवश्यक है कि वह विज्ञान और तर्क की दृष्टि से खरा उतरे.

इस वैश्वीकरण (globalization) के युग में पाश्चात्य शिक्षा (western education) वैश्विक शिक्षा बन गई है और नई पीढ़ी के मूल्य-मानक पाश्चात्य संस्कृति (western culture) के प्रभाव में आ चुके हैं.

पर एक वास्तविकता यह भी है कि नई पीढ़ी हर जगह ही अपनी जड़ों की तलाश में है और कर्मकांड/धार्मिक रीति रिवाज़ों की उत्पत्ति, अर्थ, विकास आदि के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक है.

धार्मिक उपदेशकों को धर्म के स्वरूप को नई पीढ़ी तक ले जाने में अपनी एप्रोच में इस के अनुसार परिवर्तन करना होगा.

सूचना एवं संचार माध्यमों की टैक्नोलॉजी के विकास से वैश्वीकरण की रफ़्तार बहुत तेज़ हुई है I इसके कारण नई पीढ़ी में आधुनिक जीवन मूल्यों को शीघ्र ही बहुत व्यापक स्वीकृति मिली है.

ये जीवन मूल्य हैं – वैयक्तिकता (individualism); स्वच्छंदता (liberty); समता (equity); बंधुता (fraternity); लैंगिक समानता (gender equality); तर्क संगतता (rationality) आदि.

इनके साथ साथ secularism; सुशासन (good governance); sustainable development; पर्यावरण संरक्षण एवं climate change जैसे समसामयिक प्रश्नों को भी हमें देखना होगा.

इन चिंताओं को आज का युग-धर्म कहा जा सकता है.

प्राय: इन मूल्यों का पारंपरिक मूल्यों से विरोध होता है.

इसलिए आज यदि कोई धर्म नई पीढ़ियों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है तो उसे यह समझना होगा कि पारंपरिक मान्यताएं और मर्यादाएं आधुनिक युग धर्म से टकरा कर आगे नहीं बढ़ सकतीं. हमें दोनों मान्यताओं में सामंजस्य बैठाना होगा.

यह समझना होगा कि मूल्यों-मान्यताओं की यह टकराहट कई स्तरों पर है.कुछ हद तक यह टकराहट धर्म की पूरी और सही समझ न होने के कारण है.

जैसा कि मैंने पहले कहा भारतीय संस्कृति के मूल में सब कुछ समाहित करने वाली एक वैश्विक दृष्टि है जो सृष्टि में निहित एकता को समझती है और सारी विविधता को सम्मान देती है.

वह सभी विचारधाराओं को स्वीकार करती है, और अनेक भूखंडों, नस्लों, भाषाओं, संस्कृतियों, रीति-रिवाज़ों वाले लोगों की भारी विविधता में सामंजस्य पैदा करती है.

किन्तु विविधता में एकता की यह आधारभूत पहचान और स्वीकृति कुछ उन आचरण-व्यवहारों से सीधे टकराती है जो सदियों में विकास पा गए हैं और हिंदुओं के आचरण में भेदभाव और सामाजिक अन्याय के रूप में दीखते हैं.

इन के चलते समाज में नस्लों, भूखंडों, जातियों और भाषाओं के आधार पर लकीरें खड़ी कर दी गई हैं जो रह रह कर अपनी अवांछनीय उपस्थिति का एहसास दिलाती रहती हैं.

एक और बात की ओर ध्यान खींचना चाहूंगा. हिंदू मानसिकता आरंभ से ही जिज्ञासु और वैज्ञानिक रही है जो आज के युगधर्म की प्रथम प्रवृत्त्ति है.

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में यह जिज्ञासा और प्रश्न करने की प्रवृत्ति बहुत स्पष्टता से सामने आती है:

जब न सत् था न असत्, न आकाश था न आकाश से परे के लोक,

तब कौन सब को आच्छादित किए हुए था?

कौन कहाँ स्थित था? क्या गहन, गंभीर जल में?

(अथवा, गहन गंभीर जल भी तब कहाँ था?)

नासदासीन्नो सदासीतद्रानी नासीद्रजो, नो व्योपा परो यत्

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद् गहनं गभीरम् (,वे. 10.129)

इसी प्रकार हिंदू संस्कृति में मर्यादित अभिव्यक्ति पर कभी रोक नहीं थी, न ही लैंगिक समानता (gender equality) पर.

नारियाँ, गहन गंभीर चर्चा में पुरुषों की तरह ही भाग लेती थीं. इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं - ब्रह्मज्ञान पर होने वाला याज्ञवल्क्य-गार्गी का उपाख्यान, या शंकराचार्य-मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का प्रसंग. तुलसी के मानस में भी सीता हों या कौशल्या, वे कम ज़रूर बोलती हैं पर जब बोलती हैं तो उनकी वाणी में ज्ञान और तर्क छलका पड़ता है.

लैंगिक समानता का अद्वितीय उदाहरण अर्धनारीश्वर की असंभव सी लगने वाली कल्पना में दिखाई पड़ता है. व्यक्ति की संपूर्णता में आधा अंश पुरुष-तत्त्व है आधा नारी-तत्त्व.

शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी ।(शिव महापुराण)

(समस्त पुरुष भगवान शिव के अंश और

समस्त स्त्रियां माता भगवती शिवा की अंशभूता हैं)

(उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं)

शक्ति के साथ शिव सब कुछ करने में समर्थ हैं, लेकिन शक्ति के बिना शिव स्पन्दन भी नहीं कर सकते. शिव कारण हैं, शक्ति कारक.

हिंदुओं के शीर्ष देवता बिना अर्धांगिनी के अपूर्ण हैं – ब्रह्मा-सरस्वती, शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, और सिया-राम, राधा-कृष्ण (यहाँ संबंध परिभाषित करना कठिन है, पर स्त्री तत्त्व की प्रधानता तो स्पष्ट है ही)

मनुस्मृति में भी कहा गया है:

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवता:

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:

(जहाँ नारियों की पूजा की जाती है – उन को सम्मान दिया जाता है –

वहाँ देवताओं का वास होता है,

जहाँ नारियों का सम्मान नहीं होता वहाँ किए गए सारे कार्य निष्फल होते हैं)

यह और बात है कि बाद में नारियों को पुरुषों की अपेक्षा दूसरे दर्जे का स्थान दिया गया. मगर अब यह स्थिति तेज़ी से सुधर रही है और स्त्रियों के लिए वे सब द्वार खुले हैं जो पुरुषों के लिए खुले हैं.

मानवाधिकारों (Human Rights) के विषय में हिंदू धर्म उस रूप और शब्दावली में अपनी स्थिति को व्यक्त नहीं करता, जिस में फ़्रेंच या अमरीकी संविधान या संयुक्त राष्ट्र संघ का डेक्लेयरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स करता है I पर हंदू धर्म की सारी शिक्षा मानवीय समता, करुणा, न्याय और प्रत्येक जीव का आदर-सम्मान आदि भावों से भरी हुई है.

भारतीय संस्कृति में प्रकृति (nature) के प्रति असाधारण संवेदनशीलता है:

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले । विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।

(समुद्ररूपी वस्त्रों को धारण करने वाली,पर्वतरूप स्तनों से मण्डित भगवान् विष्णु की पत्नी पृथ्वीदेवि ! आप मेरे पाद-स्पर्श को क्षमा करें)

भारतीय सभ्यता में विशेषकर ग्राम्य जीवन में वृक्षों, पौधों आदि को घर के अपनों की तरह जतन से पालने की परंपरा अभी जीवित है. गोधन पशुधन के लिए जो अपनत्व और ममता वर्तमान है वह देखते ही बनती है.

आज जब विश्व में पर्यावरण संरक्षण (environment protection) की बात होती है तो वह दिखाता है कि आधुनिक समाज में, विशेषकर पाश्चात्य सभ्यता में, मनुष्य को प्रकृति से अलग माना जाता है I मनुष्य द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण और उसे वश में करके और उसके साथ मनमानी करके विकास को संभव किया जाता है I इससे स्थिति अब इस हद तक पहुँच चुकी है कि मानवजाति के survival पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है I

भारतीय संस्कृति में मनुष्य और प्रकृति में सहभागिता का सम्बन्ध है, जिसकी आवश्यकता आज विज्ञान भी अनुभव कर रहा है I हमारे यहाँ ‘प्रकृति: रक्षति रक्षिता’ की बात की जाती है I यानी प्रकृति तब रक्षा करती है जब प्रकृति की रक्षा की जाती है I इस संस्कृति में प्रकृति के साथ विकास की बात होती है जो कि मूलतः सस्टेनेबल डेवलपमेंट (sustainable development) environment protection or conservation से मेल खाती हैI

इसी तरह secularism के कांसेप्ट के बारे में यदि हम बात करें तो हालाँकि secularism किसी शब्द के रूप में हमारे यहाँ अपरिचित है, किन्तु हमारी सभ्यता में ‘सर्व धर्म समभाव’ के रूप में यह अवधारणा हमारे लिए चिर परिचित है I

Good governance के विषय में जब बात होती है तो हमारी संस्कृति में इसे भी हजारों सालों से देखा जा सकता है I यह एक बहुत ही व्यापक परिकल्पना थी I

जब कोई ऋषि किसी राजा के यहाँ पहुँचते थे तो उनका पहला प्रश्न राज परिवार और प्रजा की कुशलता, सुख संतोष; अधिकारियों के सदाचरण और राज्य में निष्ठा; जनता द्वारा समय पर कर रूप में अपना दाय देने आदि के विषय में होता था I समाज में अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात पूछी जाती थी I इसके साथ ही पशु पक्षियों, बाग बगीचों, और वनों, नदियों और सरोवरों के स्वास्थ्य और संवर्धन; और यहाँ तक कि ऋतु चक्र के समयानुसार गति के सम्बन्ध में भी प्रश्न होता था I

इस लिए यह जानना और समझाना बहुत आवश्यक है कि आज के जीवन मूल्यों और युग धर्म और हमारे पारंपरिक सिद्धांतों और धर्म के मूल्यों में मूलतः सामंजस्य है विरोध नहीं I

युवा वर्ग आज फिर अपनी संस्कृति के आंतरिक तत्त्वों की ओर उत्सुकता, स्नेह और आदर की दृष्टि से देख रहा है I इसका परिचय हमें योग और आयुर्वेद को विश्व भर में मिलने वाली स्वीकृति से स्पष्ट है.

महात्मा गाँधी के विचारों की आज भी विश्व-व्यापी अपील है और विश्व को महानाश के कगार पर ले आई बाज़ार की संस्कृति से निराश जन-मानस भारतीय संस्कृति की ओर मुड़ रहा है.

इस स्वर्णिम अवसर पर यह आवश्यक है कि आज हमारे समाज में विचार और आचरण के बीच जो भारी खाई बनी हुई है उसे शीघ्र ही पाटा जाए जिस से विश्व को वर्तमान जीवन पद्धति की जगह एक वैकल्पिक जीवन पद्धति मिल सके.

इन्हीं शब्दों के साथ मैं आपके सबके प्रति फिर आभार प्रकट करना चाहता हूँ.

बहुत धन्यवाद

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